[Advaita-l] A post in Hindi on the Advaitic view of Ramayana

V Subrahmanian v.subrahmanian at gmail.com
Thu Apr 2 12:28:36 EDT 2020


A post in Hindi on the Advaitic view of Ramayana: By Smarth Rahul in FB
https://www.facebook.com/rahul.advaitin/posts/2850253721716919  April 13,
2019
" न च मायाया आश्रयं प्रत्यव्यामोहकत्वं नियतम् , विष्णोः स्वाश्रितमाययैव
रामावतारे मोहितत्वात् । "

~ विवरणप्रमेयसंग्रहः, सूत्र १, वर्णक १ (अध्यासविचार)

ऐसा भी कोई नियम नहीं कि माया अपने आश्रयको व्यामोहित नहीं करती, क्योंकि
विष्णु अपनी माया से ही रामावतार में मोहित हुए थे, यह देखा गया -

" असंभवं हेममृगस्य जन्म तथापि रामो लुलुभे मृगाय । " ~ हितोपदेश

किन्तु यदि ईश्वर भी जीव की तरह माया से व्यामोहित होते हैं , तो जीव और ईश्वर
में क्या भेद रहेगा ?

इसका उत्तर भगवान् शंकराचार्य ने सर्ववेदान्तसिद्धान्तसारसङ्ग्रहः में देते
हुए कहा -

तस्मादावृतिविक्षेपौ किञ्चित्कर्तुं न शक्नुतः।
स्वयमेव स्वतन्त्रोऽसौ तत्प्रवृत्तिनिरोधयोः ॥

~ सर्ववेदान्तसिद्धान्तसारसङ्ग्रहः, ५०६

आवरणशक्ति एवं विक्षेपशक्ति ईश्वरमें अपना कुछ भी फल नहीं कर सकती, परन्तु
ईश्वर ही इन दोनों शक्तियों की प्रवृत्ति एवं निवृत्ति के विषय में स्वतन्त्र
हैं ।

यही ईश्वर एवं जीव में महान् वैलक्षण्य हैं । गीता में श्रीभगवान् ने स्वयं
कहा -

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥ ~ गीता ४.६

सिद्धान्तलेशसंग्रहकारका कहना हैं कि #ब्राह्मणोंद्वारादिएगएशापोंमें_अमोघत्व
आदि स्वकृत मर्यादाके प्रतिपालनके लिए और किसी प्रकारसे भृगुऋषिके शापादिके
सत्यत्वप्रख्यापनके लिए नटके समान वह केवल अभिनयमात्र करता हैं, इसके सूचनके
लिए ही रामादि अवतारोंमें अज्ञानका कथन हैं, वस्तुतः नहीं -

" आत्मानं मानुषं मन्ये रामं दशरथात्मजम् । "

~ वाल्मीकि रामायण, युद्धकाण्ड, सर्ग १२०, श्लोक १२

राज्याद्भ्रंशो वने वासः सीता नष्टा हतो द्विजः |
ईदृशीयं ममालक्ष्मीर्निर्दहेदपि पावकम् ||

~ वाल्मीकि रामायण, अरण्यकाण्ड, सर्ग ६७, श्लोक २४

न मद्विधो दुष्कृतकर्मकारी मन्ये द्वितीयोस्ति वसुंधरायाम् ||

~ वाल्मीकि रामायण, अरण्यकाण्ड, सर्ग ६३, श्लोक ३

ईश्वरने संसारके निर्माणके समय इसकी ठीक-ठीक व्यवस्था रहे इसलिए मर्यादा बनायी
हैं, जैसे ब्राह्मणोंके शापमें अवन्धत्व आदि । उस मर्यादाका परिपालन करनेके
लिए स्वयं ईश्वरावतार भी लोकमें अनुग्रहवशतः वैसा ही आचरण करता हैं जिससे
मर्यादाका भंग न हो । यदि ऐसा न माना जाय, तो उस परमात्मामें नित्यमुक्तत्व,
निरवग्रहस्वातन्त्र्य, एवं सम और अभ्यधिकके राहित्य आदिका जो श्रुतिने
प्रतिपादन किया हैं, उसका विरोध हो जायगा ।

शंका :- यदि श्रीरामचन्द्रका दुःखभोग प्रारब्धके कारण माना जाय, तो -

अवश्यंभाविभावानां प्रतीकारो भवेद्यदि ।
तदा दुःखैर्न लिप्येरन् नलरामयुधिष्ठिराः ॥

प्रारब्ध का फल अनिवार्य हैं एवं ईश्वर भी प्रारब्ध परिहारमें असमर्थ हो तो
ईश्वरका ईश्वरभाव नष्ट होता हैं ।

उत्तर :- इससे उनका ईश्वरत्वमें कोई हानि नहीं हैं, क्योंकि -

न चेश्वरत्वमीशस्य हीयते तावता यतः ।
अवश्यंभाविताऽप्येषामीश्वरेणैव निर्मिता ॥

~ पञ्चदशी, तृप्तिदीपप्रकरण, श्लोक १५६-१५७

इन दुःखों की आवश्यंभाविता भी ईश्वरकर्तृक विहित हुआ हैं ।

|| जय श्री राम ||


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