[Advaita-l] A Hindi article on Sarvatmabhava of Prahlada

V Subrahmanian v.subrahmanian at gmail.com
Thu Mar 21 10:35:40 EDT 2019


 सर्वात्मभाव : अग्नि-स्वरुप प्रह्लाद =============

जैसे जल घनीभूत होकर बरफ के रूप में दृष्टिगोचर होता हैं, किन्तु वास्तव में
उसका अधिष्ठान --- जल ही --- व्याप्त रहता हैं, उसी प्रकार समस्त विश्व का
अधिष्ठान परब्रह्म परमात्मा ही सम्पूर्ण जगत में ओतप्रोत हैं और उसीसे समस्त
जगत की स्थिति हैं :-

मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥ ~ गीता ७.७

" तदनन्यत्वमारम्भणशब्दादिभ्यः । " ~ ब्रह्मसूत्र २.१.१४ (१४८)

एक परमात्म तत्त्व ही समस्त भौतिक तत्त्वों में स्थित होकर विभिन्न तत्त्वों
के गुण, धर्मों का संचालन करता हैं | समस्त तत्त्व में उनके गुण-रूप से
विद्यमान वही एक परम तत्त्व हैं जो अग्नि में दाहकत्व, वायु में शोषकत्व एवं
जल में शैत्य रूप से स्थित हैं :-

पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥ ~ गीता ७.९

इसके लिए श्रुति तो प्रमाण हैं ही, किन्तु प्रत्यक्ष प्रमाण भी मिलते हैं ---
भक्त प्रह्लाद !

प्रतिबिम्ब स्वच्छ द्रव्य में ही होता हैं, अस्वच्छ द्रव्य में नहीं । स्वच्छ
द्रव्य का स्वभाव हैं उसके सम्बन्ध में आनेवाला वस्तु की तदाकार को ग्रहण करना
। और स्वच्छ द्रव्य के सम्बन्ध में आनेवाला वस्तु की स्वभाव हैं उसमें
प्रतिबिंबित होना । निष्काम शास्त्रविहित कर्म एवं उपासना द्वारा रज एवं तम
जात समस्त मलदोष निरस्त होनेपर भक्त जब शुद्धसत्त्व होता हैं, तो उनके स्वच्छ
अन्तःकरण की सदा भगवादाकार वृत्ति में बिम्बरुपी इश्वरचैतन्य सदा प्रतिबिम्बित
होता हैं :-

" ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्‌ ॥ " ~ गीता ९.२९

इस तरह से ईश्वर के जिस परम भक्तका सम्बन्ध वह एक सर्वाधिष्ठान, निखिल
जगदाधार, ' कर्तुं-अकर्तुं -अन्यथाकर्तुं समर्थ ' परम तत्त्व से हो जाता हैं,
उसकी इच्छानुसार ही भौतिक तत्त्व - अग्नि, वायु आदि बर्तने लगते हैं । इन सब
पर स्वाभाविक ही आधिपत्य स्थापित हो जाता हैं -

" अत एव चानन्याधिपतिः | " ~ ब्रह्मसूत्र ४.४.९

सगुणपरब्रह्मवित् तो परमेश्वर के अधीन है | परमेश्वरप्रसाद से लब्धभोग उनका
भोग्यविषयक संकल्प में परमेश्वर स्वयं न तो बाधक बनते है एवं न ही किसी भी
लोकाधिपति को बाधक बनने देते है |

~ ब्रह्मविद्याभरण द्रष्टव्य

और अहंग्रहोपासना का प्रभाववशतः सत्यसंकल्पत्व (छान्दोग्य ८.१.५) इत्यादि
ईश्वरीय धर्मसमूह एतादृशमें आविर्भूत होता है, इसलिए इनका संकल्प कभी
बाधाप्राप्त नहीं होता |

~ रत्नप्रभा द्रष्टव्य

इस हेतुवशतः ईश्वराधीन होनेपर भी इन्हें ' अनन्याधिपतिः ' कहते है |

इसका अकाट्य प्रमाण यह हैं कि अग्नि की ज्वालायें होलिका के लिए दाहकत्व-पूर्ण
हैं, परंतु प्रह्लाद के लिए उसी समय दाहकत्व-शून्य सिद्ध हुई । भौतिक विज्ञान
इसका समाधान नहीं कर सकता । अग्नि में दाहकत्व-रूप से स्थित उस
परमतत्त्व-सर्वाधिष्ठान परमात्मा से प्रह्लाद का साक्षात् (अभेद) सम्बन्ध होने
के कारण अग्नि का दाहकत्व-गुण प्रह्लाद का ही गुण बन गया --- प्रह्लाद स्वयं
अग्नि-स्वरुप हो गए --- फिर अग्नि को अग्नि कैसे जलाये ?

यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयम् |
योऽस्मातपरस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम् ॥

~ श्रीमद्भागवतमहापुराण, ८.३.३

अद्वैतसिद्धान्त के प्रतिबिम्बवाद पक्ष में बद्ध जीवों की दृष्टि से
शुद्धचैतन्य बिम्बत्वभाव अर्थात् ईश्वरत्व प्राप्त होनेसे उसमें सर्वज्ञत्व,
जगत्कारणत्व आदि बिम्बत्वधर्म उपपन्न हो जाता है |

ब्रह्मात्मविज्ञानसंपन्न किसी जीव की दृष्टि से स्वीय उपाधिभूत मायाकार्य
अन्तःकरण का बाधवशतः उसमें प्रतिबिंबित जीवचैतन्य का पर्यवसान शुद्धचैतन्य के
रूप में होना संगत है | किन्तु बद्ध जीवों की दृष्टि से तब भी वह
बिम्बत्वधर्माक्रान्त जगत्कारण ईश्वर के रूप में प्रतिभात होता है, क्योंकि
उनमें बिम्ब शब्दप्रयोग के हेतुभूत अन्य बद्ध जीवरूप प्रतिबिम्बसमूह वर्तमान
रहता है |

अन्य प्रतिबिम्बों की दृष्टि से बिम्बत्वभाव प्राप्त होना ही जगत्कारणत्व /
ईश्वरत्व है और जगत्कारण सत्ता अवश्य सर्वज्ञत्वादि गुणों से संपन्न होना
चाहिए |

इसलिए अविद्याविलयवशतः अन्तःकरणका विलय होनेसे निर्विशेष
ब्रह्मात्मविज्ञानसंपन्न पुरुष यद्यपि शुद्धचैतन्यस्वरुप ही होता है, तथापि
बद्ध जीवों की दृष्टि से वह बिम्बत्व धर्माक्रान्त सर्वज्ञत्वादि गुणों से
युक्त जगत्कारण ईश्वरभाव प्राप्त होते है -

" एवमप्युपन्यासात् पूर्वभावादविरोधं बादरायणः | " ~ ब्रह्मसूत्र ४.४.७ (५४०)

भगवान् भाष्यकार ने भी कहा है -

" तद्विलयनेन तद्विपरीतमपहतपाप्मत्वादिगुणकं पारमेश्वरं स्वरूपं विद्यया
प्रतिपद्यते, " ~ १.३.१९ सूत्रभाष्य |

तुषानल में प्रविष्ट मूर्तिमान कर्मकाण्ड भट्टपाद श्री कुमारिल को साक्षात्
ज्ञानाग्निस्वरुप भगवान् शंकराचार्य के सामीप्य में अग्नि शीतल एवं आरामदायक
अनुभूत हुआ |

- श्रीमत् स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती जी महाराज के प्रवचन पर आधारित

॥ जय श्रीमन्नारायण ॥


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